Saturday, July 25, 2020

गुजराती लोकगीत में राम


गुजराती लोकगीत में राम
संकलन : प्रो. निरंजन राज्यगुरु
प्रस्तुति : डॉ. चंदन कुमारी
1. तारा हो राम प्राण थकी प्यारा ......
       राजा दशरथ ने घेर जनम धरीने,
        पिताजीना बोल पाड़ नारा ....हो राम
        राजा रावणने रणमां रोप्यो,
         विभीषणने राज सोंपनारा हो राम.....

2.       सखी! पडवे ते पंथे चाल्या रे,
महावनना ते मारग झालया रे
सती सीता ने लखमण  
रे सखी! बीजे ते मढ़ीये बिराजे रे,
एवा नदीयो तणा नीर गाजे र
राम मेली गिया रुडु राजे,
रघुपति राम रुदियामा रेजो रे ....
सखी ! त्रीजे ते वनवी झाड़ी रे,
वनफड़ मंगावे दाडी दाडी रे
सारी सोभे सीताजीनी वाडी,
रघुपति राम रुदियामा रेजो रे ....

सखी! बारशे हनुमान बडिया रे
ठेकी समंदर पार उतरिया रे,
जईने जोगमाया ने मडि....
सखी चौदशे चित्त विचारी रे,
फोजुं रीछ वानरनी सारी रे,
रामे रावण नांख्यो छे मारी,
रघुपति राम रुदियामां रेजो रे....

सखी! पूनमे परभू घेर आव्या रे,
थाड़ भरी मोतीडे तो वधाव्या रे,
माता कौशल्या ने मन भाव्यां
रघुपति राम रुदियामां रेजो रे....

3.       शबरी धीरे राम पधार्या शुं करूं मेमानी र
                    शुं करूं मेमानी
व्हाला शुं करूं सनमानी रे
      झूंपड़ी मारी नानी व्हाला, शुं करूं मेमानी रे
चौद भुवननो बेसवा धूणनो
      ढगलो  कीधो, पडियामा लावी पाणी रे ....
एठा झुठा बोर हतां ई प्रभुए लीधां ताणी रे .....
धन-धन शबरी भगती तारी,
वदमां जेने बखानी रे,
एवी भगती जे करे, एने मणशे अंतरजामी रे

4.       तमे पाछां रे वड़ावो रे, राजा रावण!
जानकी रे जी ....
जानकी छे गढ़ रे लंकानो काड़....माताजी 
छे गढ़ रे लंकानो काड़....
तमे पाछां रे वड़ावो रे, राजा रावण!
जानकी रे  जी ....
जी रे स्वामी! हुन् रे सुती ती मारी सेजमां,
मुंने सपनुं रे लाध्युं, वाडीयु उझाडी छे वान्दरे,
समजीए सना कीधी भेड़ी
कोट ने काँगरे भमे वान्दरा, लंका देशे बाड़
तमे पाछां रे वड़ावो रे, राजा रावण!
जानकी रे जी ....
धूड रे उड़ धूखाडवी, लंकाना मोलुं थाशे मेला


 

 




Saturday, March 21, 2020

धूप ने कविता लिखी है ( तेवरी)

हिंदी साहित्य की काव्यधारा तेवरी और प्रतिरोध संस्कृति

(‘धूप ने कविता लिखी है’ के संदर्भ में)

तेवरी काव्यधारा समकालीन कविता की वह नव्यतम धारा है जिसका अक्षर-अक्षर सकारात्मक परिवर्तन की चाह लिए प्रबल प्रतिरोध का द्योतक प्रतीत होता है | चहुंमुखी शोषण और अव्यवस्था से उपजे दुर्दशापूर्ण क्षणों के सजीव चित्रण के साथ ही यहाँ उन अमानवीय क्षणों के कारक तत्वों के प्रति मन-मस्तिष्क को झकझोरने में सक्षम प्रतिरोध का स्वर भी सुनाई देता है | सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, वैयक्तिक एवं अन्य परिस्थितिजन्य स्तर जहाँ कहीं मानवता पर संकट की संभावना है - तेवरी काव्यधारा में उसके लिए आक्रोश सहित विरोध का स्वर उपस्थित है | वर्तमान के दमघोंटू माहौल में असहज जीवन जीता हुआ प्राणी जन समूह की सजगता की कामना करता है | ‘धूप ने कविता लिखी है’ तेवरी संग्रह की ‘आज हाथों को सुनो आरी बना लो साथयों’ (पृ.126)
शीर्षक कविता का एक अंश यहाँ द्रष्टव्य है  :
 “जो अँधेरे में भटकती पीढ़ियों का ध्रुव बने / दीप अपने रक्त से वह आज बालो साथियों / सो गए तो याद रखना, देश फिर लुट जायगा / अब उठो हर मोर्चे को खुद सँभालो साथियों “
एक मोर्चा आजादी के जंग में संभाला गया था और आज एक मोर्चा लोकतंत्र में उपजी अराजकता के विरोध में संभालना आवश्यक हो गया है | इस कार्य में जिस जागृति की आवश्यकता है उसे लाने में तेवरी की समर्थता संदेहों से परे है | आजादी के कुछ सालों बाद से ही समाज की बदलती परिस्थितियों एवं सामाजिकों के बदलते रंग-ढंग के साथ तेवरी काव्यधारा की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी थी | सन 1981 में यह विधिवत प्रकाश में आई |  दर्शन बेजार ने अपने आलेख संख्या बल लोकतंत्र का मूल आधारमें तेवरी विधा के आविर्भाव की घटना को उजागर किया है | उनके अनुसार, लगभग सत्ताईस-अट्ठाईस वर्ष पूर्व जनपद मुजफ्फरनगर के क़स्बा खतौलीमें आयोजित एक साहित्यिक विचार-गोष्ठी में श्री ऋषभदेव शर्मा देवराजतथा डॉ. देवराज ने जनसापेक्ष कविता जो कथित गजल-शिल्प में लिखी जा रही थी , को तेवरीनाम देकर एक नई विधा को जन्म दिया |”1  यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि तेवरी न गीत है और ना ही यह गजल है | अधिकांश  विद्वानों का मत है कि यह जनसापेक्ष तो है पर इसका अस्तित्व जनवादी और प्रगतिशील विचारधारा से सर्वथा स्वतंत्र है | प्रो ऋषभदेव शर्मा (1957) के अनुसार तेवरी की विशिष्टता यह है कि यह शिल्प मुक्ति का आंदोलन है | यहाँ गीत और गजल परस्पर अपने-अपने शिल्प से मुक्त हैं | “तेवरी का शिल्प बड़ी सीमा तक गीत का शिल्प भी है, केवल गजल का ही नहीं | गजल की बहुत सारी शर्तों को स्वीकार नहीं करता | गजल की सबसे बड़ी शर्त है कि गजल में एकान्विति नहीं होती | गीत की सबसे बड़ी शर्त है कि उसमें एकान्विति होती है | तेवरी की शर्त है कि पहले तेवर से अंतिम तेवर तक, एक भाव क्रमशः उद्दीप्त होता चलता है और अंतिम तेवर तक आते-आते वह पूरी तरह से पूरी रचना का जो एकान्वित प्रभाव पड़ना चाहिए उसे निष्पन्न करता है | वस्तुतः तेवरीगीत और गजल दोनों के शिल्प को फ्यूज करके नया शिल्प बनाने का प्रयास था | इसमें हम सफल भी हुए |”2 तेवरीकार ऋषभदेव शर्मा ने पुरुषोत्तम दास टंडन हिंदी भवन, मेरठ में 11 जनवरी, 1981 को ‘नए कलम-युद्ध का उद्घोष’  शीर्षक एक पर्चा प्रस्तुत किया जिसमें नई धारदार अभिव्यक्ति वाले रचनाकर्म की आवश्यकता को प्रतिपादित किया गया और ऐसी रचनाओं के लिए तेवरीनाम प्रस्तुत किया गया |”3 इसके बाद ही 11 जनवरी 1982 को खतौली उत्तरप्रदेश से तेवरी  काव्यांदोलन की आधिकारिक घोषणा कर दी गई | इसके घोषणापत्र के लेखक प्रो. देवराज हैं |  तेवरी काव्यांदोलन के प्रवर्तक ऋषभदेव शर्मा के प्रथम तेवरी संग्रह तेवरी (देवराज, ऋषभ) का  प्रकाशन 01-06-1982 में हुआ | इस विचारधारा के प्रचार और प्रसार में नजीबाबाद में 24-01-1982 को आयोजित तेवरी केंद्रित संगोष्ठी का अवदान अविस्मरणीय है | इसके बाद तो तेवरी काव्यांदोलन से जुड़ी गोष्ठियाँ समय-समय पर होती रहीं | इन सबका विशद् तथ्यपरक वर्णन आचार्य ऋषभदेव शर्मा ने अपने आलेख “तेवरी काव्यांदोलन : उद्भव और विकास” में किया है जो संदर्भित पुस्तक का एक अंश (पृ. 160-168) भी है परंतु इसका मूल स्रोत सन 1994 में प्रकाशित इनकी पुस्तक “हिंदी कविता – आठवाँ नवां दशक” है |   
तेवरी काव्यधारा की समर्थक आरंभिक पत्र-पत्रिकाओं में कुछ के नाम इस प्रकार हैं – “तेवरी पक्ष, सम्यक, जर्जर कश्ती, कुंदनशील, कल्पांत, हस्तांकन, दैनिक पंजाब केसरी, साप्ताहिक हिंदुस्तान, युवाचक्र, शिवनेत्र, संवाद, मंथन, उन्नयन, सर्वप्रिय, सहकारी युग, सारिका, अंतर्ज्वाला, इत्यादि | “तेवरी पक्षपत्रिका ने तेवरी का प्रवाह आज भी गतिमान कर रखा है | इसके संपादक रमेशराज हैं  |  
तेवरी काव्यांदोलन के आरंभिक समय में तेवरी काव्यधारा के अनेक सक्रिय रचनाकारों ने  बढ़ चढ़ कर अपना योगदान दिया था, उनमे से कुछ के नाम यहाँ उल्लिखित हैं पवन कुमार पवन, विनीता निर्झर, ऋचा अग्रवाल, राजश्री रंजिता, राजेश महरोत्रा, गिरिमोहन गुरु, दिनेश अंदाज, ब्रजपाल सिंह शौरमी, हरिराम चमचा, तुलसी नीलकंठ, रघुनाथ प्यासा, श्याम बिहारी श्यामल, विक्रम सोनी, जगदीश श्रीवास्तव, गजेंद्र बेबस, विजयपाल सिंह, अनिल कुमार अनल, अरुण लहरी, गिरीश गौरव, योगेंद्र शर्मा, सुरेश त्रस्त, शिव कुमार थदानी इत्यादि | आज भी देश के कोने-कोने में धारदार तेवरियाँ लिखी जा रहीं हैं | हिंदी साहित्य में तेवरी काव्यधारा का आविर्भाव एक महत्वपूर्ण घटना है जिसका हिंदी साहित्येतिहास में अंकन होना चाहिए ताकि हिंदी साहित्य की यह महत्वपूर्ण निधि भविष्य में सुरक्षित रहे और सर्वसुलभ हो | साहित्य की समृद्धि और सामाजिकों के मन का परिष्करण करती तेवरियां आज भी समय की जरुरत हैं |
 वर्तमान समय में तेवरी को अविराम गति प्रदान करनेवालों में उल्लेखनीय नाम हैं : दर्शन बेजार, रमेशराज और ऋषभदेव शर्मा | फेसबुक और ब्लॉगों (तेवरी काव्य विधान, हिंदी तेवरी साहित्य, तेवरी, तेवरी गजल विवाद) पर भी इनकी तेवरियाँ उपलब्ध हैं | तेवरी के घोषणापत्र के लेखक एवं तेवरीकार डॉ. देवराज सहित ये तेवरीकार त्रय सम्मिलित रूप में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तेवरी काव्यधारा के  चार मजबूत आधार स्तंभ हैं |  इनमें रमेशराज के चर्चित तेवरी संग्रह हैं – “सिस्टम में बदलाव ला, घड़ा पाप का भर रहा, धन का मद गदगद करे, रावण कुल के लोग, ककड़ी के चोरों को फांसी,  दे लंका में आग,  होगा वक्त दबंग,  आग जरुरी,  मोहन भोग खलों को,  आग कैसे लगी,  बाजों के पंख कतर रसिया,  जय कन्हैयालाल की, ऊधौ कहियो जायइत्यादि | इनके समस्त तेवरी संग्रहों का संकलन भी  रमेशराज के चर्चित तेवरी संग्रहनाम से सन 2015 में सार्थक सृजन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है | इन्होने लंबी तेवरी, तेवरी शतक और द्विपदी के साथ ही हाइकु भी लिखा है | इनके द्वारा संपादित तेवरी संग्रह हैं : अभी जुबां कटी नहीं (1982), कबीर जिंदा है (1983), इतिहास घायल है (1984) इत्यादि | दर्शन बेजार के चर्चित तेवरी संग्रह हैं – एक प्रहार लगातार (1985), देश खंडित हो न जाए (1989), ये जंजीरें कब टूटेंगी (2010), खतरे की भी आहट सुन (प्रकाशनाधीन, सार्थक सृजन प्रकाशन, अलीगढ़) इत्यादि | आचार्य ऋषभदेव शर्मा के चर्चित तेवरी संग्रह और तेवरी समीक्षा ग्रंथ हैं – तेवरी (1982), तेवरी चर्चा (आलोचना : 1987), तरकश (1996), देहरी (स्त्रीपक्षीय कविताएँ : 2011), धूप ने कविता लिखी है (2014) इत्यादि |
‘तेवरी’ शब्द में निहित अर्थ गांभीर्य को तेवरी के घोषणापत्र में स्पष्ट किया गया है | संदर्भित पुस्तक में उद्धृत घोषणापत्र के एक अंश को यहाँ उद्धृत किया जा रहा है जिससे इस काव्यधारा का स्वरूप पूर्णरूपेण स्पष्ट हो जाएगा, द्रष्टव्य है – “ऐसी कविता जो नंगी पीठ पर पड़ते हुए कोड़े की आवाज, पिटते हुए व्यक्ति के मुख से निकली हुई आह-कराह, भरी सभा में भोली जनता के सामने घड़ियाली आँसू बहाता और कभी न पूरे होने वाले आश्वासन देता हुआ नेता, भूखे बच्चे को बापू के आने का विश्वास दिलाती हुई महिला का स्वर, रोटी माँगती हुई बच्ची, सेवायोजन कार्यालय के सामने खड़े-खड़े थकने पर सारी व्यवस्था को गाली देता हुआ नवयुवक, सुविधाओं के अभाव में आत्महत्या करता हुआ वैज्ञानिक तथा इन सब स्थितियों के विरुद्ध मनुष्य के भीतर लावे की तरह बहने वाला असंतोषजन्य आक्रोश – इन सब को एक साथ प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्ति प्रदान कर सके, निस्संदेह ‘तेवरी’ है |”4 वास्तव में तेवरीकार प्रकाश प्रहरी बनकर अपनी तेवरियों के माध्यम से कृत्रिम उजालों से चुँधियाई आँखों को चमकरहित सच्चाई दिखाने का उद्दयम ही कर रहे हैं |
“हम प्रकाश के प्रहरी निकले, कलमें तेज दुधारी ले / सूरज इतने साल गह चुका, राहु-केतु को गहना है ” (पृ.25, बौनी जनता ऊँची कुर्सी प्रतिनिधियों का कहना है )

एक नई क्रांति की आवश्यकता जताते हुए कपनी कलम शक्ति से एक परिवर्तन मानवता  के हित में, देश के हित में, समाज के हित में और विश्व बन्धुत्व के हित में लाना इनका यथेष्ट प्रतीत हो रहा है |
“  हाथ कटेंगे अगर कलम ने, सच लिखने की ठानी / करो फैसला, झूठ सहो या सच के लिए मरोगे.../ यह गूँगों की भीड़ कि इसकी, वाणी तुम्ही बनोगे / राजपथों से फुटपाथों के हक के लिए लड़ोगे” (पृ.30, कुर्सी का आदेश कि अब से मिलकर नहीं चलोगे)
इस परिवर्तन के लिए निडरता को चुनना जितना आवश्यक है वर्तमान परिस्थितियों में उतना ही जानलेवा भी | सत्य का पथ संघर्ष और कष्ट का पथ अवश्य है साथ ही यह है आत्मोन्नति और आत्मिक आनंद का पथ भी है | मानवता के रक्षार्थ भी यही आवश्यक है | आचार्य ऋषभदेव शर्मा अपनी तेवरियों में स्पष्ट कहते हैं कि जो भूमि पर गिरेगा उसे भीड़ न उठाएगी, ना ही उठ कर संभलने का मौका देगी | इसलिए सच के पक्ष में डट कर खड़ा होना ही श्रेयष्कर है | पर लोकतंत्र में चुनाव की स्वतंत्रता भी है | चयन अपना-अपना - स्वाभिमान या दुत्कार ! अलगाव या एकता ! विश्वास या अविश्वास ! सत्य और भ्रम के मध्य आँख खोलकर चुनना है | धर्म, जाति, संप्रदाय, भाषा और न जाने कितने गढ़ों का निर्माण अपनी तुच्छ स्वार्थपूर्ति हित महत्वाकांक्षी और वोट के भूखे लोगों द्वारा किया गया है | देखें : “मस्जिद में अल्लाह न बोला , राम न मंदिर में डोला / खून किया धर्मों ने अपना, आज शहर में कर्फ्यू है / संप्रदाय की मदिरा पीकर, आदम आदमखोर हुआ / छाया पर विश्वास न करना, आज शहर में कर्फ्यू है / नोट-वोट का शासन बोले, अलगावों की ही भाषा / इस भाषा को हमें बदलना, आज शहर में कर्फ्यू है” / (पृ.15 घर से बाहर नहीं निकलना आज शहर में कर्फ्यू है )
जनता अनजान नहीं है | वह इनके इरादों से वाकिफ है | पर हर बार चुनावी जाल में इन मछुआरों के हाथ से फँस ही जाती है | इस स्थिति से उबरने का आगाज करती हैं तेवरियाँ | प्रेमचंद का होरी, धनिया, झुनिया, गोबर इन तेवरियों में भी जीवित हैं | देखें : “गोबर कहता है – संसद को और नहीं बनना दूकान / परचों पर अब नहीं लगेंगे, आँख मूंदकर और निशान” (पृ.133 गाँव गाँव से खबर मिल रही सुनियो पंचो देकर ध्यान )
कवि स्थिति की मार्मिकता को समझ कलमकरों का आह्वान करते हैं | कलम की शक्ति ने अंग्रेजों को भी हिला दिया था तभी “सोज़े वतन” को जब्त कर लिया गया था | यह भी सच है कि आग उगलते स्वर वाले लेखक और उनकी बिना बिकी हुईं कलमें खतरे के दायरे में आतीं हैं | लोकतंत्र का हित ही सर्वोपरि है | देखें :  “वे सूत्रधार संप्रदाय-युद्ध के बने / बस एकता-अखंडता जिनका बयान है / गूंगा तमाशबीन बना क्यों खड़ा है तू / तेरी कलम, कलम नहीं, युग की जबान है” (पृ.95, कुछ लोग जेब में उसे धर घूम रहे हैं)
“सीने को वे सी रहे, तलवारों से होंठ / गला किंतु गणतंत्र का, नहीं सकेंगे घोट / जिनका पेशा खून है, जिनका ईश्वर नोट / उन सबको नंगा करो, जिनके मन में खोट” (पृ.115, पग-पग घर-घर हर शहर ज्वालामय विस्फोट)
जनता का सेवक बन सत्ता में जाने वालों और उनके सहायक-तंत्र की संवेदनहीनता का चरम ही तो है कि कहीं पेट मेज बने हुए हैं और कहीं आंतें अकड़ी हुईं हैं | हर साल लोग बाढ़ की यंत्रणा झेलते हैं, सम्मानित शासकीय लोग कभी सरकारी तो कभी निजी विमानों में बैठ आपदाग्रस्त इलाकों का दर्शन कर लेते हैं | आश्वासन दे चले जाते हैं और अगले वर्ष फिर सामान्य जनता तबाही का सामना करती है किसी ठोस और असरकारी कदम  के अभाव में | देखें : “खील बताशों का क्या कहिए, चना चबेना के लाले हैं / उनका भोजन मुगलाई है, बाकी सब कुछ ठीक ठाक है / डूब रहा नेल्लूर, महोदय, वायुयान से देख गए हैं / बाढ़ प्रकाशम में आई है, बाकी सब कुछ ठीक ठाक है / घोर तबाही चक्रवात में, टूट गए घर, खेत बह गए / उनसे मेंढ़ न बंध पाई है, बाकी सब कुछ ठीक ठाक है” (पृ.16 केवल कुर्सी पगलाई है, बाकी सब कुछ ठीक ठाक है )
“कुर्सियों पर लद गया है बोझ नारों का / यार, ये विकलांग नायक ठेलने होंगे” (पृ.105, क्या पता था खेल ऐसे खेलने होंगे)
मानवता के हित में ऐसे विकलांग नायकों और संवेदनहीन व्यवस्था के प्रति तेवरी में मुखर प्रतिरोध है | दलितों और शोषितों के हित में यहाँ पूंजीवादी व्यवस्था से भी विरोध है | गरीब आदमी अपने बच्चों का कंकाल देख मन मसोसता है कि अपना रक्त और अपनी हड्डी गलाकर भी वह अपनी जरूरत नहीं पूरा कर पाता है और अमीरों के पालतू जानवरों के शौक पूरे हो रहे हैं | रक्तजीवियों के यहाँ सुविधा है, उल्लास है, पर्व की रौनक है | उसी रौनक को पाने की आस में महानगरों में आया गरीब सपरिवार चिथड़ों की शरण में है |
 देखें :  “टॉमियों औ’ रुबियों को टॉफियां वे बाँटते हैं / जबकि कल्लू और बिल्लू कागजों को चाटते हैं / रक्त पीकर पल रही है रक्तजीवी एक पीढ़ी / जबकि अपनी देह की हम आप हड्डी काटते हैं ” (पृ.84, टॉमियों औ’ रुबियों को टॉफियां वे बाँटते हैं )
 “कांख में खाते दबाए आ गया मौसम / खून से वे भर रहे हैं ब्याज होली में / चौक में है आज जलसा भूल मत जाना / भूख की आँतें बनेंगी साज होली में” (पृ.36, हो गए हैं आप तो ऋतुराज होली में )

“कितनी कुटियों में नहीं हुई दीया-बाती / क्यों भला हवेली बिजली की दीवानी है / रग्घू की माँ तो चिथड़ों से गुदड़ी सीती / शोषण की साड़ी में पर दिल्ली रानी है” (पृ. 97, अम्मृत के आश्वासन देना नादानी है)
सारा बवाल रोटियों का है | किसी के पास रोटी का एक टुकड़ा भी नहीं है और किसी ने अपनी सात पुश्तों के लिए रोटियों का इंतजाम अभी से कर रखा है | भाव और अभाव के सामाजिक द्वंद यज्ञ में बलिपशु कौन ? मानव और मानवता ! आदमी का वजन अब हवा से भी हल्का हो गया है | तभी तो इंसान के वजूद और रोटी के हक में  कवि घातक बुर्जों को ढहाने की बात करते हैं | वे भयावह शब्द जिनसे वर्षों बाद सामना होना है क्यों न उसका सच्चा स्वरूप बचपन से ही सिखा दिया जाए ताकि जब चयन की बात हो तब आसानी हो |
“गा” गोली, “बा” बंदूकें, ‘खा’ से खून-पसीना / ‘रा’ रोटी, ‘आ’ आग और ‘ला’ लहू पढ़ाओ रे / अब और न तश्तरियों में यह जिन्दा मांस सजे / रोटी के हक की खातिर तलवार उठाओ रे  ( पृ.60 जलती बारूद बनो अब बुर्जों पर छाओ रे )
भूमंडलीकरण के दौर में नित नई विदेशी भाषाओँ और संस्कृति से लैस स्कूलों का खुलना अच्छा है पर ऐसे में जमीनी शिक्षा जिसमें भारतीय भाषाओँ और संस्कृति का अनवरत कारगर प्रवाह हो, ऐसी ही शिक्षा मनुष्यता के हित में महत्वपूर्ण है | तेवरी के माध्यम से कवि ने दलित स्त्री का प्रतिरोध भी जाहिर किया है, द्रष्टव्य है :
 “ भील-युवती ने कहा कल ग्राम मुखिया से / मार खाओगे अगर अब हाथ डाला तो” (पृ.22, क्या हुआ जो गाँव में घर घर अँधेरा है )
इसके साथ ही दुलहिन की शृंगार सामग्री को परंपरागत बंधन कहा है | लोकतंत्र की लंका में हावी चतुर्दिक आशंका, अविश्वास, मूल्यहीनता, चाटुकारिता, अवसरवादिता, अफसरशाही, पूंजीवादी तानाशाही   और इन सबकी उपज जन के मन का घोर भय – उस भयाक्रांतता और उसके समस्त कारणों के  अंतकामी अग्निधर्मा तेवरियाँ “धूप ने कविता लिखी है” तेवरी संग्रह में हैं | व्यर्थ की नारेबाजी की जगह ठोस हल खोजने की जरूरत की ओर हमारा ध्यान खींचती हुई तेवरी में धार्मिक उन्माद का भी विरोध है | साधुत्व वेश में नहीं अंतर्मन में हो तब ही सच्चा है | समय साक्षी है धर्मजगत की आड़ में पल रहे अपराधों की |  देखें : बाजों के मुँह खून लगा है, रोज कबूतर वे मारेंगे / आप मचानों पर चुप बैठे, कैसा पुण्य लाभ लहते हैं (पृ.113 योगी बन अन्याय देखना इसको धर्म नहीं कहते हैं )
योगी स्वामी विवेकानंद भी थे | उन्होंने कहा था, “जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा रहेगा, मेरा धर्म उसके लिए भोजन जुटाना होगा |” आज तो भूखे नरकंकालों की महाभीड़ है | असली मानव धर्म और राष्ट्र हित भूलकर न जाने हम किन चक्करों में पड़े हैं | प्रतिरोध के स्वर में तेवरी सच का साक्षात् कराते हुए इन चक्करों से आजाद कराने की कोशिश करती है | कुर्सी और जूतों की घनिष्ठता से आम आदमी बेहाल है | वह अपने उपर हो रहे जुल्म से निजात पाने कहाँ जाये ? इस विवशता का अंत देखें : “नाच रहा कानून जुर्म की महफ़िल में मदिरा पीकर / उन्हें बता तो : किंतु दुपहरी तम की दास नहीं होगी / जनमेजय ने एक बार फिर, नागयज्ञ की ठानी है / नियति धर्मपुत्रों की फिर से, अब वनवास नहीं होगी” (पृ.32, गलियों की आवाज आम है माना खास नहीं होगी )
दूसरी तरफ तकनीकी उन्नति के दौर में अपने कुदाल-फावड़े के संग अपने को पिछड़ा महसूस करते हुए वे किसान हैं जो हमारे लिए अन्न उपजाते हैं | इस खाई का प्रतिरोध और समन्वय की कवायद जो आम आदमी के अस्तित्व रक्षण हित में है, यहाँ स्पष्ट उजागर हुई है |
“मुझ गंवार का प्रश्न यही है संसद से, सचिवालय से / लोक गँवा के तन्त्र बचा के , क्या, उत्ती के पाथोगे “



संदर्भ सूची :

1.       बेजार, दर्शन, 13-07-2016, संख्या बल लोकतंत्र का मूल आधार, hinditewari-29.blogspot.in
2.       सिंह, डॉ. विजेंद्र प्रताप. ऋषभदेव शर्मा का कवि कर्म (2015), नजीबाबाद : परिलेख प्रकाशन, पृ.122
3.       शर्मा, डॉ.ऋषभदेव, हिंदी कविता : आठवाँ नवां दशक, 1994, खतौली : तेवरी प्रकाशन, पृ. 150
4.       शर्मा, डॉ.ऋषभदेव, धूप ने कविता लिखी है, 2014, हैदराबाद : श्रीसाहिती प्रकाशन, पृ. 163






Sunday, January 12, 2020

स्वामी विवेकानंद : राष्ट्रीय पुनर्निर्माण

स्वामी विवेकानंद : राष्ट्रीय पुनर्निर्माण

लोकहित सर्वोपरि के अनन्य साधक, एक सनातन धर्म के सर्वोत्कृष्ट व्याख्याता, समन्वय के महान आचार्य,
 वेदांत के अप्रतिम प्रसारक, दुर्दमनीय साहसी व्यक्तित्व के स्वामी का जन्म 12 जनवरी 1863 को बालक
 नरेन्द्रनाथ दत्त (नरेन) के रूप में कलकत्ता के दत्त परिवार में हुआ | इनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी
 एवं पिता का नाम विश्वनाथ दत्त है | सन 1881 में रामकृष्ण परमहंस से उनकी भेंट हुई और यहीं से
उनके जीवन में अनोखा परिवर्तन आया | इन्होंने गुरु के सानिध्य में ईश्वर की अनुभूति पाई और ईश्वरीय
सत्ता में उनका विश्वास  दृढ़ हो गया | सामाजिक सुधार के नाम पर जब मूर्तिपूजा के अस्तित्व पर खतरा
मंडरा रहा था तब उन्होंने स्पष्ट कहा था कि यदि मूर्तिपूजा से श्रीरामकृष्ण परमहंस जैसे व्यक्ति उत्पन्न हो
 सकते हैं तो  हजारों मूर्तियों की पूजा करो | प्रभु तुम्हें सिद्धि दें जिस किसी भी उपाय से हो सके इस प्रकार
 के महात्मा  पुरुषों की सृष्टि करो | नरेन ने अपने गुरु से एक प्रश्न  किया और प्रत्युत्तर से उनके जीवन में
 एक महत्वपूर्ण मोड़  आया | ‘क्या, क्यों और कैसे’ से भरे हुए उनके मन को दिव्य शांति मिली  साथ ही
आध्यात्मिक पथ यात्रा की अन्तः स्फूर्त प्रेरणा भी | गुरु के प्रति पूर्ण समर्पित और ईश्वरीय शक्ति में दृढ़
 आस्था वाले इस  बालक ने  हर नर में नारायण को देखा तभी तो सेवाव्रती का धर्म निभ पाया | इनके
अनुसार  मूर्ति में बसे हुए उस सर्वशक्तिमान का साक्षात् हर जीव में प्रत्यक्ष है बस आवश्यकता अनुभूत
 करने की है | इस अनुभूति के बाद कहीं कुछ अप्रिय घटित होने की  संभावना ही  नहीं रहेगी | भला कौन
 होगा जो अपने प्रिय का , अपने ही  स्वरूप का अहित करना चाहेगा ! शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन का सार
 भी यही है –
‘ब्रह्म सत्यं  जगन्नमिथ्या , जीवो ब्रह्मैव नापरः |’ (अर्थात ब्रह्म सत्य है | यह संसार मिथ्या है | जीव और ब्रह्म
अभिन्न हैं |)  आत्मा, ब्रह्म , बंधन और मोक्ष संबंधी इनके विचारों पर जहाँ आदिगुरू शंकराचार्य का प्रभाव
 है वहीं सेवा और पुनर्जागरण संबंधी इनके विचार में श्री रामकृष्ण परमहंस का प्रभाव दीखता है | मोक्ष के
 लिए इन्होंने जिन चार मार्गों का प्रतिपादन किया वे हैं ज्ञान, कर्म, भक्ति और राजयोग | इन पर आधारित
 स्वामी विवेकानंद की चार कृतियाँ उपलब्ध हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं – ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग
 और राजयोग | ज्ञान योग का प्रथम चरण अध्ययन को अनुभूत करने से संबद्ध है | केवल पढ़ना या सुनना
 भर काफी नहीं है | उसका चिंतन और अनुसरण भी आवश्यक है | ध्यानस्थ होने के लिए मन, शरीर और
 इन्द्रिय पर पूर्ण नियंत्रण यानि पूर्ण वैराग्य की अवस्था में तात्विक ज्ञान साधना की  ओर मनुष्य की तत्परता
जिसके परिणामस्वरूप वह ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का भावक बन जाता है, वस्तुतः ज्ञानयोग है |  भक्तियोग में
भावना सर्वोपरि है | यह सरल, सहज और सर्व सुलभ है | गीता के निष्काम कर्म की भावना पर आधारित
 है कर्मयोग जिसके अंतर्गत मनुष्य को तात्विकता में उलझे बिना अपने कर्म का निर्वाह इस जगत के
नियमानुसार निःस्वार्थ भाव से करना है | गौतम बुद्ध का निर्वाण प्राप्ति के पश्चात् मनुष्यों के लिए किये  गये
 कर्म को स्वामी विवेकानंद ने आदर्श रूप  में प्रस्तुत किया है | यह ‘स्व’ और ‘पर’ का भेद मिटाकर किया
 जानेवाला कर्म ही वास्तविक कर्मयोग है | इनका राजयोग मार्ग  महर्षि पतंजलि के योगसूत्र पर आधारित
 है | इसमें ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के नियंत्रण के लिए कुछ विशिष्ट पद्धतियों का पालन बिना किसी
चूक के अनिवार्य रूप से करना आवश्यक बताया गया है | इसमें यौगिक क्रियाएं भी सम्मिलित हैं | अपने
 चरमावस्था में यहाँ भी साधक ध्यानस्थ ही होता है | ये चारो मार्ग परस्पर संबद्ध हैं | व्यक्ति अपनी
अभिरुचि एवं क्षमता के अनुसार किसी का भी चयन कर आगे बढ़ सकता है | अपने व्याख्यानों में कई
बार उन्होंने शास्त्रों का तर्क देते हुए सभी धर्मों के परस्पर संबद्धता और एक्य की बात कही | अपनी
अद्भुत धार्मिक और तात्विक व्याख्यायों  से इस भारत को संपूर्ण विश्व का गुरु बनाने वाले स्वामी
विवेकानंद का अपनी भारत भूमि से, यहाँ की  संस्कृति से, यहाँ की  भाषा से, यहाँ के लोगों से और संपूर्ण
चराचर जगत  से अनन्य प्रेम रहा है | उनके प्रेम के प्रवाह को निरंतर बनाये रखने का उत्तरदायित्व हमारा
 है | इस ओर हमने क्या कोई कदम उठा रहे  हैं ? क्या हम अपने छोटे-छोटे दायरे के भीतर  ही मनुष्यता
की अलख जगा पा रहे हैं  ? नैतिकता का कोई सार्वभौम सिद्धांत नहीं है | यह देश, काल और परिस्थितियों
 के अनुसार बदलता रहता है | इसे देखते हुए स्वामी विवेकानंद ने कुछ आदर्शों की रुपरेखा बनाई और
मनुष्य जाति के ज्ञान चक्षु को खोलने के लिए, उस दिव्य मनुष्य निर्माण वाली शिक्षा को  हमारे बीच रखा
जो स्वामी विवेकानंद के शब्दों में यहाँ द्रष्टव्य है – “ सुनो प्रत्येक नर और नारी, प्रत्येक शिशु बिना किसी
 जाति या जन्म के विचार के, बिना दुर्बलता या शक्ति की भावना के यह सुने और सीखे कि सबल और
निर्बल के पीछे, उंच और नीच के पीछे, सबके पीछे वही अनंत आत्मा है, जो सबकी अनंत संभावना और
 अनंत सामर्थ्य पर बल देता हुआ उन्हें महान और उत्तम बनाने का आश्वासन प्रदान करता है | हम प्रत्येक
 जीव के समक्ष घोषणा करें – उठो, जागो और ध्येय की प्राप्ति तक मत रुको |... दुर्बलता के इस सम्मोहन
से जागो | कोई भी वस्तुतः दुर्बल नहीं है ; यह आत्मा अनंत, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है | खड़े होओ,
अपने अस्तित्व पर बल दो, अपने अन्तः स्थित परमात्मा कि घोषणा करो , उन्हें अस्वीकार मत करो | ...हम
मनुष्य निर्माण करनेवाला धर्म चाहते हैं...| हम सर्वतः मनुष्य निर्माण करनेवाली शिक्षा ही चाहते हैं | हम
मनुष्य निर्माण करनेवाला सिद्धांत ही चाहते हैं | और यह रही सत्य की  कसौटी – जो भी तुम्हे शारीरिक,
बौद्धिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाता है, उसे विष के समान त्याग दो ; उसमें किसी प्रकार का
जीवन नहीं है, वह सत्य नहीं हो सकता | सत्य बलप्रद होता है | सत्य पवित्रता स्वरूप है | सत्य सर्वज्ञान
स्वरूप है |...दुर्बल करने वाले रहस्यवाद छोड़ दो और सबल बनो  | ... महानतम सत्य संसार में सबसे
सरल हुआ करते हैं ,तुम्हारे अपने अस्तित्व की तरह सरल |” अपने अस्तित्व को गरिमा की दृष्टि से देखना
स्वीकार योग्य महत्वपूर्ण तथ्य है | निजी हेयता का शिकार होकर ही कोई भी प्राणी कुमार्गी बनता है और
विकृतियों का शिकार होता है तथा स्वयं का, परिवार का और राष्ट्र का अहितकारक बन आता है |

देश और समाज की हृदयद्रावक स्थिति को स्पष्ट करते हुए युवाओं एवं भावी समाज -
सुधारकों के नाम अपने संदेश में स्वामी विवेकानंद कहते हैं  ,” हम ही अपने सारे पतन के लिए उत्तरदायी
हैं | हमारे सामंतवादी पूर्वज देश कि साधारण जनता को अपने पैरों तले इतना रौंदते गए कि वे असहाय
बन गए और इस अत्याचार के कारण यहाँ के गरीब लगभग भूल ही गए कि वे भी मनुष्य हैं | उन्हें
शताब्दियों से केवल लकड़ी काटने वाले या पानी ढोनेवाले बने रहने के लिए ही बाध्य किया गया है ..|
...अतएव मेरे भावी सुधारकों, मेरे भावी देशभक्तों, तुम अनुभव करो, तुम हृदयवान बनो | क्या तुम हृदय
से अनुभव करते हो कि देव और ऋषियों कि करोड़ों संतानें आज पशुतुल्य हो गयी है ? क्या तुम हृदय से
अनुभव करते हो कि लाखों आदमी आज भूखों मर रहे हैं और लाखों लोग शताब्दियों से इसी भांति मरते
आए हैं ? क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञान के काले बादल ने सारे भारत को ढँक लिया है ? क्या तुम
यह सब सोचकर द्रवित हो जाते हो ? क्या इस भावना ने तुम्हारी नींद को गायब कर दिया है ?... क्या तुम
अपने नाम-यश, स्त्री-पुत्र, धन-संपत्ति यहाँ तक कि अपने शरीर की सुध भी बिसर गए हो ? क्या सचमुच
तुम ऐसे हो गए हो ? यदि हाँ तो जानो तुमने देशभक्त बनने कि पहली सीढ़ी पर पैर रखा है |... केवल व्यर्थ
कि बातों में शक्ति का क्षय न करते हुए इस दुर्दशा का निवारण करने के लिए क्या तुमने कोई यथार्थ
कर्तव्य पथ निश्चित किया है ? क्या लोगों को गाली न देकर उनकी सहायता का कोई उपाय सोचा है ? क्या
स्वदेशवासियों को उनकी इस जीवन्मृत अवस्था से बाहर निकालने का कोई मार्ग ठीक किया है ? क्या
उनके दुखों को कम करने के लिए दो सांत्वनादायक शब्दों को खोजा है ? किंतु इतने में ही पूरा न होगा |
क्या तुम पर्वतकाय विघ्न बाधाओं को लाँघकर कार्य करने के लिए तैयार हो ? यदि सारी दुनिया हाथ में नंगी
तलवार लेकर खड़ी हो जाए तो भी क्या तुम जिसे सत्य समझते हो, उसे पूरा करने का साहस करोगे
?...यदि तुममें ये तीन बातें हैं तो तुममें से प्रत्येक अद्भुत कार्य कर सकता है |”
 “आगामी पचास वर्षों के लिए ...हमारे मन से .. शेष सभी व्यर्थ के देवता लुप्त हो जाएँ | केवल यही, यह
हमारी जाति ही ऐसी देवता है जो जाग रहा  है, उसके सभी जगह हाथ हैं, सभी जगह पैर हैं, सभी जगह
 आँखें हैं, वह सबको व्याप्त करके स्थित है | दूसरे सब देवता सो रहे हैं | व्यर्थ के देवताओं के पीछे जाकर
क्या लाभ, जब हम अपने चारों ओर विद्यमान इस ईश्वर की इस विराट की पूजा नहीं कर पाते ? ...सबसे
पहली उपासना विराट की उपासना है |हमारे चारो ओर जो हैं, उनकी उपासना है | ...ये मनुष्य और जीव-
जंतु – ये हि हमारे देवता हैं और यदि किसी देवता की हमें सबसे पहले उपासना करनी चाहिए तो वे हैं
हमारे देशवासी |”
स्वामी विवेकानंद के इस संदेश में एक अखण्ड और संगठित राष्ट्र की अवधारणा सन्निहित है | लोकहित
 में लोकशक्ति के संगठन का यह कार्य लोकशिक्षा के बगैर असंभव है | विश्वगुरुत्व की क्षमता वाले भारत
के निवासी धर्मोन्मुख है | अतः धर्म को ही  राष्ट्रीय जीवन का मेरुदंड मानते हुए आध्यात्मिक ज्ञान के
प्रचार-प्रसार का कार्य उन्होंने भारत और भारतेतर देशों में क्रमशः प्रारंभ किया | इसके लिए शिक्षालयों
की भी स्थापना की गई | सुप्त ब्रह्म भाव को जागृत करनेवाले ये शिक्षालय चैतन्य के संवाहक बने | यहाँ
शास्त्रों और उपनिषदों के माध्यम से स्वधर्म पालन और कर्मवीरता का वह पाठ पढ़ाया जाता था जिससे
मन के साथ-साथ जीवन का भी अँधेरा आसानी से छंट जाता  और मानव जीवन का लक्ष्य स्पष्ट हो जाता |
वैर – वैमनस्य और दुराव के अभाव में ही वसुधैव कुटुंबकम का भाव निहित है और इसके समुचित पोषण
के लिए वेदांत के सत्यों को प्रतिपादित करते हुए स्वामी विवेकानंद ने सार्वभौम धर्म की परिकल्पना की
जिसका स्वरूप यहाँ द्रष्टव्य है , “ यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना है, तो वह किसी देश या काल से
सीमाबद्ध नहीं होगा ; वह उस असीम ईश्वर के सदृश हि असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा ; जिसका
सूर्य, कृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, संतों पर और पापियों पर सामान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा;
जो न तो ब्राह्मण होगा, न बौद्ध , न इसाई और न इस्लाम वरन सबकी समष्टि होगा,किंतु फिर भी जिसमें
विकास के लिए अनंत अवकाश होगा ; जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से किंचित उन्नत निम्नतम
घृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने हृदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से ऊपर उठ गए
उच्चतम मनुष्य तक को स्थान दे सकेगा | वह धर्म ऐसा होगा जिसकी नीति में उत्पीड़न या असहिष्णुता
का स्थान नहीं होगा ; वह प्रत्येक स्त्री और पुरुष में दिव्यता को स्वीकार करेगा और उसका संपूर्ण बल
और सामर्थ्य मानवता को अपनी सच्ची दिव्य प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही
केन्द्रित होगा | आप ऐसा धर्म सामने रखिए और सारे  राष्ट्र आपके अनुयायी बन जाएंगे | ...  इसाई को
हिन्दू या बौद्ध नहीं बनना है न कि हिन्दू या बौद्ध को इसाई ही | पर हाँ प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के
 सारभाग को आत्मसात कर पुष्टि-लाभ करे और अपने वैशिष्ट्य कि रक्षा करते हुए अपनी निजी वृद्धि के
नियम के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हों |”  राष्ट्र के पुनर्निर्माण का दायित्व हर मनुष्य पर समरूप है  जिसके
लिए समन्वय, शांति, अहिंसा, सत्य, प्रेम, निःस्वार्थ सेवा, त्याग, परस्पर साहचर्य इत्यादि मानवीय गुणों की
व्यावहारिक प्रतिष्ठा आवश्यक है जो निज धर्म के अंगीकार व निर्वाह से सहज ही सुलभ है  | मनुष्य
निर्मायक धर्म की स्थापना वस्तुतः मनुष्य कि स्वाभाविक उन्नति हेतु सुमार्ग का प्रशस्तीकरण है | किसी भी
 प्रकार की दुर्बलता (शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक) निर्माण और उन्नति में अवरोध उत्पन्न करती है
इसलिए इन दुर्बलताओं को त्यागकर आत्मबली बनने के लिए, सम्पूर्ण मानव जाति का स्वामी विवेकानंद
ने बारम्बार आह्वान किया | उन्नीसवी सदी में भारत के इस  युवा सन्यासी पूरे विश्व में भारत की
आध्यात्मिकता का परचम लहरा दिया | उस परिप्रेक्ष्य में आज की इक्कीसवीं सदी की हमारी  युवा पीढ़ी
को स्वयं को टटोलने की आवश्यकता है | स्व की उन्नति  के साथ सर्व की उन्नति वाले भाव के साथ पर को
उसके  दोष के लिए कोसने की जगह उन दोषों के निवारण हित प्रयत्न की प्रवृत्ति  का आत्मसातीकरण हो
 – यही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का मूलमंत्र है जो स्वामी विवेकानंद के शब्दों में यहाँ द्रष्टव्य है , “यदि इस समाज
में , इस राष्ट्रीय जीवन रूपी जहाज में छेद हैं तो हम तो उसकी संतान हैं | आओ चलें उन छेदों को बंद कर
दें  ... हम अपना भेजा निकालकर उसकी डाट बनायेंगे और जहाज के उन छेदों में भर देंगे पर उसे
कोसना नहीं ? नहीं-नहीं, कभी नहीं, इस समाज के विरुद्ध एक शब्द न निकालो | उसकी अतीत की
 गरिमा के लिए मेरा उस पर प्रेम है |” आज की  प्रेमहीन, दिशाहीन, यांत्रिक, स्वार्थी और दिखावे वाली
खोखली मृत सी जीवन शैली वाले समाज में स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी विचार प्रवाह की  विद्यमानता
में उम्मीद की एक किरण सी है कि मानव फिर से अपनी मानवीय संस्कृति और मानवीयता पर गर्व
करेगा |
संदर्भ :
स्वामी विवेकानंद साहित्य समग्र